मैं तब दिल्ली सरकार में अधिकारी के पद पर कार्यरत था। हर महीने के आखिर में पैसों की तंगी होना आम बात थी। ऐसे में अगर कोई खर्च सिर पर आ जाए, तो बिना उधार के काम नहीं चलता था। एक बार महीने की 24 तारीख को मेरा बेटा सौरभ अपना टूटा हुआ जूता लेकर मेरे पास आया। वह सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा का छात्र था। बेटे ने कहा, ‘पापा, मेरा जूता बनवा दीजिए, वरना कल से स्कूल नहीं जा पाऊंगा।’ मैं परेशान हो गया क्योंकि जो भी पैसे थे, सारे खर्च होने थे। मैं सोचने लगा कि अब क्या करूं, किस मद के पैसे से जूता बनवाऊं। आखिर सब्जी आनी भी जरूरी थी औैर बस का किराया देना भी। ऐसे में किसी से उधार मांगने के सिवा कोई चारा नहीं था। मैंने अपनी पत्नी से सारी बात बताई, तो वह भी चिंतित हो गई। तभी मेरा बेटा आया और हम दोनों को चिंतामग्न देखकर बोल पड़ा, ‘पापा, क्या हुआ आप परेशान क्यों हैं?’ मैंने बच्चे से झूठ बोलना मुनासिब नहीं समझा और सारी बात उसे बता दी। यह सुनकर सौरभ भी परेशान हो गया। लेकिन अचानक वह मेरे पास आया और बोला, ‘पापा, एक उपाय है, जिससे हमारी समस्या का हल हो सकता है।’ ‘क्या’, मैंने चौंककर पूछा। सौरभ बोला, ‘पापा, मैं अपने एक पैर में पट्टी बांध लेता हूं और चप्पल पहनकर स्कूल चला जाऊंगा। जब सर पूछेंगे, तो कह दूंगा, मोच आ गई है। कुछ दिन इसी तरह आऊंगा। औैर फिर आप भी आवेदन पत्र लिखकर दे देना। और फिर दो-तीन दिनों की तो बात है। जब आपको सैलरी मिल जाएगी, तो जूता भी बन जाएगा।’ पर मैं इसके लिए राजी नहीं हुआ क्योंकि इससे सौरभ को भी झूठ बोलना पड़ता। इसलिए मैंने उसके शिक्षक से बात की। उन्होंने तुरंत अपनी मंजूरी दे दी। इस तरह सौरभ को भी झूठ नहीं बोलना पड़ा और मुझे भी। पर जब भी यह घटना याद आती है, मेरा दिल भर आता है।
बच्चो को दिखाई सही दिशा
Admin
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अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteआये सम्राट बुंदेलखंड पर्
काश ऐसा किसी के साथ ना हो
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